आज हम राख(भस्म) बुध मानते हैं और आज से चालीसा (लेंट) शुरू होता है| जिस प्रकार हम आगमन काल में परमेश्वर के मुक्ति-विधान, हमारे प्रभु येशु ख्रीस्त के आगमन की तैयारी करते हैं ठीक उसी प्रकार इस चालीसा काल में हम उनके आगमन के असल मकसद की तैयारी करते हैं|
हमारे बीच में प्रभु येशु के मनुष्य रूप में आने का असली मकसद आखिर क्या था? हमें पिता के पास ले जाना, उनके लिखित विधान से परे उनकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की कला सिखाना और हमारी मुक्ति और उद्धार के लिए युगों-युगों का एक विधान ठहराना यही उनके आने का मकसद था| प्रभु येशु ने अपना यह मकसद क्रूस पर अपनी मृत्यु और तीसरे दिन पुनर्जीवित होने के द्वारा पूरा किया| उनका यह बलिदान उस समय के विश्वासियों के लिए एक कर्ज की अदायगी के रूप में था| हमारे लिए यह किस रूप में है? हमारे लिए यह अनंत काल तक चलने वाले बैंक बैलेंस के रूप में है जिसे हम उनपर अपने अटूट विश्वास के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं|
आइये पहले हम यह जाने कि चालीसा शब्द का क्या अर्थ है? चालीसा शब्द संख्या चालीस से आया है| यह संख्या काफी महत्वपूर्ण है| बाइबल के पुराने व्यवस्थान में हम यह देखते हैं कि परमेश्वर ने इस्रायल को चालीस वर्ष तक मरुभूमि में रखा, उन्हें ठीक उसी प्रकार तपाया और ठोका पीटा जिस प्रकार एक सोनार सोने को निखारने के लिए करता है| इससे भी पहले नूह के समय में जब परमेश्वर ने जलप्रलय भेजा था तो इसकी अवधि भी चालीस दिन-रात की थी| प्रभु येशु ने भी चालीस दिन-रात तक उपवास और परहेज किया | इन उदाहरणों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि परमेश्वर के द्वारा चालीस दिन/रात/वर्ष की अवधि एक शुद्धिकरण के समय के रूप में प्रायः प्रयुक्त की जाती रही है| इसे किसी बड़े और नए कार्य की शुरुआत के पहले के तैयारी के काल के रूप में भी देखा जा सकता है| इस्राएल के संदर्भ में यह प्रतिज्ञा देश में उनके प्रवेश की तैयारी कही जा सकती है| नूह के संदर्भ में इसे पाप मुक्त नयी सृष्टि की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है| प्रभु येशु के संदर्भ में इसे उनके मिशन [जो कि हमारी मुक्ति से जुड़ा था] की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है| हम यहाँ उपवास, परहेज और अधिक से अधिक प्रार्थना करने की सीख पाते हैं|
हम यह पाते हैं कि चालीसा काल का मुख्य उद्देश्य क्या है? उपवास, परहेज और परमेश्वर से अधिक से अधिक प्रार्थना करना ताकि वे हमें किसी भी पाप में पड़ने से बचाएं| आज का दिन हमें जीवन की एक सच्चाई से अवगत कराता है कि हम सब मिट्टी से रचे गए हैं [उत्पत्ति ग्रन्थ 2:7] और हमें अंततः इसी में मिलना है| हमारा इंसानी शरीर नश्वर है और यह अंततः कमजोर होकर मृत्यु की ओर अग्रसर होता है| हमारा शरीर जो मिट्टी से बना है अंततः इसी में मिल जाता है पर हमारी आत्मा जो अनश्वर है उसका परमेश्वर से मिलन होता है| जैसे हिरणी जल के लिए तरसती है ठीक उसी प्रकार हमारी आत्मा भी परमेश्वर से मिलने के लिए तरसती है और यही कारण है कि संसार की भोग-विलास की कोई भी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर पाती है क्योंकि हमारी यह भूख और प्यास सांसारिक नहीं है बल्कि आत्मिक है और इसे केवल आत्मिक भोजन से ही तृप्त किया जा सकता है| हमें परमेश्वर के मुख से निकली हुई जीवन की रोटी चाहिए ताकि हम अनंत जीवन पा सकें| प्रभु हमसे यह कहते हैं कि "जीवन की रोटी मैं हूँ", "मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ", "देख, मैं [तेरे ह्रदय के] द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूं; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर [ह्रदय का] द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ [आध्यात्मिक] भोजन करूंगा, और वह मेरे साथ।
पुराने समय में लोग जब शोक मानते और पछतावा करते थे तो टाट ओढ़कर राख लगाते थे और उपवास करते थे [नबी योना का ग्रंथ, नीनवे के लोगों ने ऐसा ही किया था]| आज जो राख हम अपने माथे में लगाते हैं और प्रार्थना, उपवास और परहेज के काल में प्रवेश करते हैं तो आइये हम परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वे हमारे पापों को हमसे उतना ही दूर कर दें जितना "पूरब की दूरी पश्चिम से है [स्तोत्र ग्रंथ 103:12]"
चालीसा काल में प्रार्थना, उपवास, परहेज के साथ ऐच्छिक दान का भी नियम है| सवाल ये है कि हम क्या दान करें? क्योंकि हमारे पास जो कुछ भी है वो तो प्रभु का ही दिया हुआ है| प्रभु चाहते हैं कि हम उन्हें अपना समय दें| तो आइये हम इस पवित्र काल में प्रभु के साथ संगति करें, उनके लिए समय निकालें और अपने पापों से परहेज करते हुए प्रभु परमेश्वर के साथ आगे बढ़ते जाएँ|
पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर आमीन|
हमारे बीच में प्रभु येशु के मनुष्य रूप में आने का असली मकसद आखिर क्या था? हमें पिता के पास ले जाना, उनके लिखित विधान से परे उनकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की कला सिखाना और हमारी मुक्ति और उद्धार के लिए युगों-युगों का एक विधान ठहराना यही उनके आने का मकसद था| प्रभु येशु ने अपना यह मकसद क्रूस पर अपनी मृत्यु और तीसरे दिन पुनर्जीवित होने के द्वारा पूरा किया| उनका यह बलिदान उस समय के विश्वासियों के लिए एक कर्ज की अदायगी के रूप में था| हमारे लिए यह किस रूप में है? हमारे लिए यह अनंत काल तक चलने वाले बैंक बैलेंस के रूप में है जिसे हम उनपर अपने अटूट विश्वास के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं|
आइये पहले हम यह जाने कि चालीसा शब्द का क्या अर्थ है? चालीसा शब्द संख्या चालीस से आया है| यह संख्या काफी महत्वपूर्ण है| बाइबल के पुराने व्यवस्थान में हम यह देखते हैं कि परमेश्वर ने इस्रायल को चालीस वर्ष तक मरुभूमि में रखा, उन्हें ठीक उसी प्रकार तपाया और ठोका पीटा जिस प्रकार एक सोनार सोने को निखारने के लिए करता है| इससे भी पहले नूह के समय में जब परमेश्वर ने जलप्रलय भेजा था तो इसकी अवधि भी चालीस दिन-रात की थी| प्रभु येशु ने भी चालीस दिन-रात तक उपवास और परहेज किया | इन उदाहरणों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि परमेश्वर के द्वारा चालीस दिन/रात/वर्ष की अवधि एक शुद्धिकरण के समय के रूप में प्रायः प्रयुक्त की जाती रही है| इसे किसी बड़े और नए कार्य की शुरुआत के पहले के तैयारी के काल के रूप में भी देखा जा सकता है| इस्राएल के संदर्भ में यह प्रतिज्ञा देश में उनके प्रवेश की तैयारी कही जा सकती है| नूह के संदर्भ में इसे पाप मुक्त नयी सृष्टि की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है| प्रभु येशु के संदर्भ में इसे उनके मिशन [जो कि हमारी मुक्ति से जुड़ा था] की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है| हम यहाँ उपवास, परहेज और अधिक से अधिक प्रार्थना करने की सीख पाते हैं|
हम यह पाते हैं कि चालीसा काल का मुख्य उद्देश्य क्या है? उपवास, परहेज और परमेश्वर से अधिक से अधिक प्रार्थना करना ताकि वे हमें किसी भी पाप में पड़ने से बचाएं| आज का दिन हमें जीवन की एक सच्चाई से अवगत कराता है कि हम सब मिट्टी से रचे गए हैं [उत्पत्ति ग्रन्थ 2:7] और हमें अंततः इसी में मिलना है| हमारा इंसानी शरीर नश्वर है और यह अंततः कमजोर होकर मृत्यु की ओर अग्रसर होता है| हमारा शरीर जो मिट्टी से बना है अंततः इसी में मिल जाता है पर हमारी आत्मा जो अनश्वर है उसका परमेश्वर से मिलन होता है| जैसे हिरणी जल के लिए तरसती है ठीक उसी प्रकार हमारी आत्मा भी परमेश्वर से मिलने के लिए तरसती है और यही कारण है कि संसार की भोग-विलास की कोई भी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर पाती है क्योंकि हमारी यह भूख और प्यास सांसारिक नहीं है बल्कि आत्मिक है और इसे केवल आत्मिक भोजन से ही तृप्त किया जा सकता है| हमें परमेश्वर के मुख से निकली हुई जीवन की रोटी चाहिए ताकि हम अनंत जीवन पा सकें| प्रभु हमसे यह कहते हैं कि "जीवन की रोटी मैं हूँ", "मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ", "देख, मैं [तेरे ह्रदय के] द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूं; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर [ह्रदय का] द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ [आध्यात्मिक] भोजन करूंगा, और वह मेरे साथ।
पुराने समय में लोग जब शोक मानते और पछतावा करते थे तो टाट ओढ़कर राख लगाते थे और उपवास करते थे [नबी योना का ग्रंथ, नीनवे के लोगों ने ऐसा ही किया था]| आज जो राख हम अपने माथे में लगाते हैं और प्रार्थना, उपवास और परहेज के काल में प्रवेश करते हैं तो आइये हम परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वे हमारे पापों को हमसे उतना ही दूर कर दें जितना "पूरब की दूरी पश्चिम से है [स्तोत्र ग्रंथ 103:12]"
चालीसा काल में प्रार्थना, उपवास, परहेज के साथ ऐच्छिक दान का भी नियम है| सवाल ये है कि हम क्या दान करें? क्योंकि हमारे पास जो कुछ भी है वो तो प्रभु का ही दिया हुआ है| प्रभु चाहते हैं कि हम उन्हें अपना समय दें| तो आइये हम इस पवित्र काल में प्रभु के साथ संगति करें, उनके लिए समय निकालें और अपने पापों से परहेज करते हुए प्रभु परमेश्वर के साथ आगे बढ़ते जाएँ|
पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर आमीन|
होशन्नाह
ReplyDeleteAmen
ReplyDeleteपेरितो के काम 3:19
ReplyDeleteAmen hallelujah 🙏
ReplyDeleteAmen
ReplyDeleteAmen
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